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अँधेरे से
अँधेरे को जाने वाला रास्ता
दुर्गम तो था, लेकिन निर्जन नहीं था,
यही था,
सामूहिकता का बहुत बड़ा सुख।
रास्ते पर
सूखे हुए पत्तों की तरह
फैले हुए थे सपने
जो बुहार कर कूड़ेदान में फेंक दिए गए थे
अशिष्ट था,
उनका इधर उधर पड़े हुए दिखना
सभ्यता के विरुद्ध था।
कविता का अँधेरे से गहरा संबंध था
अँधेरा
कविता से खेलता था गेंद की तरह
उछलता था
मारता था पैर से
और किलक कर हँस पड़ता था,
कविता
अँधेरे को
तलवार से चीर कर फेंकती नहीं है,
उतार लेती है कंठ में
गरल की तरह,
फिर फूटती है शब्दों की किरणों में ढल कर।
रास्ते अनिवार्य है,
अपरिहार्य है
अँधेरा
इसलिए निर्बाध है
चित्त के भीतर से कविता का फूटना।
शुक्र है,
अँधेरे से अँधेरे को जाने वाला रास्ता
निर्जन नहीं है।
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